Monday, October 19, 2009

आज खबर है - कल दीवाली थी....




कुछ फुसफुसाहटें सी सुनाई तो दी थी यहाँ !
कुछ रौशनी सी भी हुई थी इस खामोश कोने में
आज खबर है - कल दीवाली थी , गुज़र गयी !!

Friday, October 16, 2009

Monday, October 12, 2009

तेरह अक्टूबर ....किशोर की याद में... .....!!





एक कुर्सी खींच कर उल्टी
बैठा था
कुछ ही देर पहले
वो एक कबूतर

टूटी प्याली में चोंच मारता
पलकें झपकाता
गाता मुस्कुराता
नाचता नचाता ....
हवाओं में रंग से भरता हुआ

उड़ गया अचानक
जाने कहाँ ...!

अब सिर्फ पंख हैं ....
कुछ प्याली में
कुछ कुर्सी पर
और कुछ इधर उधर...

गीत तो हैं ...शायद मुस्कुराहटें भी
पर हवा अब अकेली है
अकेली ही रहेगी ...
शायद हमेशा के लिए !!!

Friday, October 9, 2009

मैं का टूटना... हम हो जाना..... दर्द है !!



मैं का टूटना
हम हो जाना
दर्द है
तपती सांकल की तरह
ना छुअन की संभावना
ना ही खुल जाने की आस

बंद होती हथेली पर
पूर्ण और अपूर्ण के दरम्यान
भीड़ सा हो जाने का अहसास
सर उठाता है ..
चुभता रहता है
तीखी किरचों की तरह
एकाकीपन आँख बंद करता है
( अंधों से परिचय भी हो तो कितना )

टूटना
बिखरना
परिभाषाएं खो देना
कब हुए पर्याय - जुड़ जाने के ?

कब हुआ करीब आना
दूर....
बहुत दूर हो जाना खुद से ?

रौशनी से ज्यादा नजदीकी - हमेशा अँधेरा ही क्यों होती है ?

प्रश्नों की दूब पर
ओस बन के कोई उत्तर
उतरे ना उतरे...
स्तिथि मात्र यही है ...
मैं का टूटना हम हो जाना
दर्द है
स्वीकारना होगा
दर्द की तरह !!!

Sunday, September 13, 2009

"...वक्त्त"


मिल ही जाता है वक्त्त मुझे देर सवेर ,
लाख उससे मैं दामन बचाता रहूं !
घोँप कर घड़ी के काँटे मेरी हथेली पर ;
चाहता है कमबखत मुस्कुराता रहूं !!

Friday, September 11, 2009

"....ये मेरा खुदा "




....और फिर
अपनी ही उनींदी परछाईं में
मैंने उसे देखा
इक ख्वाब के अहसास सा

कुंवारी बर्फ सी सफेदी लिए
हवाओं में खुशबू कि तरह
सब तरफ बिखरता हुआ सा


और फिर महसूसा ...
रूह की गहराई में दूsssर तक उतरते
एक चुप्प सी खामोशी बनकर ....हौले हौले !!

ये मेरा खुदा
तुम्हारे खुदा से यूँ अलग सा क्यूँ है ?

Friday, April 10, 2009

कहाँ थे तुम ?




कहाँ थे तुम
जब पुकारा था तुम्हें
मेरे दर्द ने ?

कहाँ थे तुम
जब दिन भर ये नम आँखे
हर किसी सूरजमुखी कि पंखुडी
टटोल रही थी ,
हर गली -हर मकान के मुंडेरों पर
घुटनों के बल चल चल
मेरी हर सांस
तुम्हारी ही किसी छूट गयी परछाईं कि टोह में
इधर उधर डोल रही थी...

कहाँ थे तुम
जब रात रात भर की जगी
अंधी बहरी सड़कों पर
मेरी उदासी
ढूंढा किये थी
तुम्हारे होठों से गिरी किसी मुस्कुराती रोशनी की लकीर को !

कहाँ थे तुम ?
जब बदहवासी ने मेरी
तन अपना फाड़ कर
तुम्हें आने के लिए लिखा था ....

अब आये हो ?
इत्ती देर में आये हो ?
चलो ....

मेरा दर्द
नम आँखें
भरभराती साँसे
मेरी उदासी और मेरा तन
तमाम सब मिल कर तुम्हे ढूँढने गए हैं
आते ही होंगे ....!

तुम बैठो तो सही ! !

Monday, February 2, 2009

"...पराजय के बाद "



कल तक जो
धूप थी
आँगन में पसरी पसरी ;
एक खामोश सी उदासी हो गयी है,

गमलों में लगे
डेलिया,
अपने तमाम रंगों के बावजूद
अब कुछ गुनगुनाते नहीं.....

पडौसी की दीवार पर बैठी गौरय्या
जो कल तक
खूब बतियाती फिरती थी
आज वहीं दूर बैठी टिकटिकी लगाये
बस ......देखती भर रहती है !

मौसम ने
अब किन्ही भी शब्दों में
मुस्कुराने से इनकार कर दिया है;

एक चुप्पी
अटक सी गयी है
खिड़की की सलाखों के इस तरफ़ , उस तरफ़
शोर है
तो सिर्फ़ अपनी ही आती जाती सांसों का है !

कल तक
एक द्वंद था
इसी बहाने
तुमसे सम्बन्ध था ;
...........और एक डर था , जो मुट्ठी में बंद था !

आज सब कुछ बदल गया है
जो कल था वो नही है ;
जो नही था , अब सिर्फ़ वही है
मैं आज खूब निडर हो गया हूँ !


पराजय के बाद
निडर हो जाना
सच में
कितना आसान हो जाता है !

Monday, January 19, 2009


विश्वास एक ज़मीं का
एहसास इक ज़मीं का
संत्रास इक ज़मी का;

...........................तोड़ने लगता है
शिराएँ अंतर्मन की
रोकने लगता है धाराएं मन-प्रवाह की ;

दो गुनी ताक़त से
सर उठाती है अस्मिता
हौसले और सर चढ़ जाते हैं
जिजविषा पीठ छूकर
अस्तित्व निखारती है तब तब !

क्षितिज तक पहुँचने से पहले
ना ज़मीं , ना आसमान
कुछ नही छूटता !

Saturday, January 17, 2009

किस्सा


खिड़की के पल्ले में सिमटा
छोटा सा आकाश
आस पास की बिखरी भीड़ का
दस्तावेज़ बन चला है

क्यूंकि
मैं जानता हूँ
.................इन आँखों के फ्रेम में दिखने वाली
साली भीड़ नहीं है
फकत
भीड़ का इक छोटा सा हिस्सा है !

अपनी अभिव्यक्ति के बहाने जिसे
संवेदनाओं के पोरों से छु छु कर
चखा है ;
मन की देहरी पर घिसा है !

और फिर
इस खिड़की के ज़रिये
मेरे नज़रिए का
यही तो किस्सा है !!

Thursday, January 15, 2009

जीवन रीत गया...!


अतीत से कटा नहीं
वर्तमान के गुंथे आटे में अटा
जीवन रीत गया !!

कितने टुकड़े जिया
पल पल, क्षण क्षण
याद नहीं-
- गिनती आती नहीं
-या की जाती नहीं

किससे कितना जुड़ा
कितना कटा
जीवन रीत गया !!


कितने पैर होंगे
सोच के कबूतर के
कितने संभाल कर रखे हैं
ख़ुद ही के
खंडहरों पर
गिरना - उखड़ना वाकई मुश्किल है

आने वाले कल
कल के हर पल की आस
आसपास महसूस करता है

कितनी बार गुणा हुआ
कितनी बार बटा ....
जीवन रीत गया !!

जकडे रहे सम्बन्ध
या संबंधों से जुडा रहा
ना निगल सका - ना उगल सका
कड़वी सी फांक सा कहीं
वहीं गले में अटका रहा

साँसों की सिहरन में
कितनी बार लहराया
कितनी बार फटा
जीवन रीत गया !!

काश यह ना होता - वो होता
काश वो भी ना होता
कुछ और होता
- षड़यंत्र गहरा था
-चाल भयंकर थी
यह, वो, या कुछ और ना भी होता
तो भी ज़रूर होता

नियती बन कई बार अड़ा
फिर जाने कितनी बार हटा
जीवन रीत गया !!

Saturday, January 10, 2009

आंसू-२


उसने
जब जब छुआ है
चेहरा
ख़ुद का
कांपती हथेलियों ने पूछा है


तुम सागर तो नहीं हो

फिर
यह चेहरे पर तुम्हारे
रेत सा गीलापन क्यों है ?


अब
कौन इन सूखी सी
अपनी ही लकीरों से उलझती,
मात खाती

हथेलियों को समझाए


"आंसुओं के लिए भी कभी कोई शर्त होती है ???"

आंसू -१




निशान
बाकी रहें
इसीलिए गीलापन
ज़रूरी है बहुत

सूखी रेत पर
क्या रहेंगे
अभी हैं
अभी हवा का स्पर्श पाते ही
चुक जायेंगे

निशान
बाकी रहें
इसीलिए तो.....!!

यूँ ही नहीं बिछाता आया हूँ मैं
आँसू
तुम्हारी राह में !!

Monday, January 5, 2009

....प्रतिक्रया !

"बोल हल्ला" ब्लॉग पर 'कैसे मिलेगा न्याय जयश्री को' पोस्ट पड़ने के बाद की प्रतिक्रया"


कभी घर के अंदर कोई आरुशी

तो कभी बाहर कोई जयश्री
किसी मिटटी के लौंदे की तरह मसल दी जाती है
मिटा दी जाती है ;
ब्लैक बोर्ड पर लिखी किसी इबारत की तरह !

हम सिर्फ़ तमाशबीन से तमाशा देखते हैं
कभी बहुत हुआ तो कोई धरना दे दिया
या फिर जला ली एक-आध मोमबत्ती

उसके बाद
किसी को कोई फर्क नही पड़ता
कोई परिंदा नही उड़ता
दरिंदा अपनी मनमानी का जशन खुल के मनाता है !

कभी खादी तो कभी खाकी
सिर्फ़ मुखौटे बदलते हैं , शिकार बदलते हैं
शिकारी नही

रक्षक ही भक्षक है , क्या कीजियेगा ,
सभ्यता सिर्फ़ किताबों में छपा एक लफ्ज़ है
पड़ लीजियेगा
.................और बस भूल जाईयेगा !!

Sunday, January 4, 2009

...अपने करीब !





स्था
और फिर अनास्था
और दोनों के बीच कहीं
छुटता हुआ
एक सूत्र

फैलता हुआ
तागा

जब जब
मेरी हथेलियों के बीच उग आई
भाग्य रेखा को छूता है...

तब तब
कहीं
अन्यायास ही
मैं
अपने करीब , बहुत करीब
पहुँचने लगता हूँ !!