Saturday, January 17, 2009

किस्सा


खिड़की के पल्ले में सिमटा
छोटा सा आकाश
आस पास की बिखरी भीड़ का
दस्तावेज़ बन चला है

क्यूंकि
मैं जानता हूँ
.................इन आँखों के फ्रेम में दिखने वाली
साली भीड़ नहीं है
फकत
भीड़ का इक छोटा सा हिस्सा है !

अपनी अभिव्यक्ति के बहाने जिसे
संवेदनाओं के पोरों से छु छु कर
चखा है ;
मन की देहरी पर घिसा है !

और फिर
इस खिड़की के ज़रिये
मेरे नज़रिए का
यही तो किस्सा है !!

3 comments:

  1. और फिर
    इस खिड़की के ज़रिये
    मेरे नज़रिए का
    यही तो किस्सा है !!
    lसही है... अच्‍छा लिखा।

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  2. बस, जितना दिखता है, उतना ही हिस्सा हमारा है. सुन्दर रचना.

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  3. बेहतरीन रचना के लिए शायर सागर साहब को मेरा सलाम माफ करना आपको शायर बोल रहा हूं

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