Monday, January 19, 2009


विश्वास एक ज़मीं का
एहसास इक ज़मीं का
संत्रास इक ज़मी का;

...........................तोड़ने लगता है
शिराएँ अंतर्मन की
रोकने लगता है धाराएं मन-प्रवाह की ;

दो गुनी ताक़त से
सर उठाती है अस्मिता
हौसले और सर चढ़ जाते हैं
जिजविषा पीठ छूकर
अस्तित्व निखारती है तब तब !

क्षितिज तक पहुँचने से पहले
ना ज़मीं , ना आसमान
कुछ नही छूटता !

3 comments:

  1. क्षितिज तक पहुँचने से पहले
    ना ज़मीं , ना आसमान
    कुछ नही छूटता !
    बहुत सुंदर कविता।

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  2. बहुत गहरी भावना छिपी है

    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    चाँद, बादल और शाम

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