
कल तक जो
धूप थी
आँगन में पसरी पसरी ;
एक खामोश सी उदासी हो गयी है,
गमलों में लगे
डेलिया,
अपने तमाम रंगों के बावजूद
अब कुछ गुनगुनाते नहीं.....
पडौसी की दीवार पर बैठी गौरय्या
जो कल तक
खूब बतियाती फिरती थी
आज वहीं दूर बैठी टिकटिकी लगाये
बस ......देखती भर रहती है !
मौसम ने
अब किन्ही भी शब्दों में
मुस्कुराने से इनकार कर दिया है;
एक चुप्पी
अटक सी गयी है
खिड़की की सलाखों के इस तरफ़ , उस तरफ़
शोर है
तो सिर्फ़ अपनी ही आती जाती सांसों का है !
कल तक
एक द्वंद था
इसी बहाने
तुमसे सम्बन्ध था ;
...........और एक डर था , जो मुट्ठी में बंद था !
आज सब कुछ बदल गया है
जो कल था वो नही है ;
जो नही था , अब सिर्फ़ वही है
मैं आज खूब निडर हो गया हूँ !
पराजय के बाद
निडर हो जाना
सच में
कितना आसान हो जाता है !