Sunday, February 14, 2010

" फिर दिखा वो आइना ...."




चंद कतरे ज़िंदगी की ओस के, होंठों पे रख
मैं खुश हुआ था,
फिर किसी उम्मीद के अहसास ने आकर के यूँ
मुझको छुआ था !

एक पल में उड़ चले थे , सोच के पर जाने कहाँ,
सच मेरी लाचार हालत का भी मुझको झूठ सा
लगने लगा था !

.......कि अचानक दिख गयी तस्वीर वो जो थी हकीकत,
फिर दिखा वो आइना किरचें समेटे ज्यों का त्यों
टूटा हुआ था !

अब वही सूखे से कतरे आँख में फिर तिर रहें हैं
भीगते तो अश्क बन कर बह भी जाते,
रूह के फैले अंधेरों में बेमकसद, फिर रहें हैं !

फिर वही मैं हूँ औ' मेरी बेबसी,
पर कब तलक !
आज की रात कटेगी तो सहर देखूँगा !!!!

Saturday, February 6, 2010

"मैं मगर हारा नहीं हूँ...."



थक गया हूँ मैं भले ही
मैं मगर हारा नहीं हूँ...
वक़्त हो कितना भी कातिल
वक़्त का मारा नहीं हूँ !!

दीप मेरा आँधियों में लड़खड़ाता ही सही
पर जल रहा है....
हौसला बोझिल हुआ सा डगमगाता ही सही
पर चल रहा है !

रौशनी की लकीरें कुछ दिखें या न सही ,
घबरा के दम को घोंट लूं , मैं वो अँधियारा नहीं हूँ
थक गया हूँ मैं भले ही, मैं मगर हारा नहीं हूँ !!

नाव मेरी इस भंवर में फस चुकी हो भले
डूबी नहीं है...
डाली डाली बागबाँ की छितरी पड़ी हो भले
सूखी नहीं है !

ज्वार ऊँचा हो भले आकाश से, होता रहे
इस प्रलय में डूब जाऊं, सागर का वो किनारा नहीं हूँ ...
थक गया हूँ मैं भले ही, मैं मगर हारा नहीं हूँ !!

Monday, October 19, 2009

आज खबर है - कल दीवाली थी....




कुछ फुसफुसाहटें सी सुनाई तो दी थी यहाँ !
कुछ रौशनी सी भी हुई थी इस खामोश कोने में
आज खबर है - कल दीवाली थी , गुज़र गयी !!

Friday, October 16, 2009

Monday, October 12, 2009

तेरह अक्टूबर ....किशोर की याद में... .....!!





एक कुर्सी खींच कर उल्टी
बैठा था
कुछ ही देर पहले
वो एक कबूतर

टूटी प्याली में चोंच मारता
पलकें झपकाता
गाता मुस्कुराता
नाचता नचाता ....
हवाओं में रंग से भरता हुआ

उड़ गया अचानक
जाने कहाँ ...!

अब सिर्फ पंख हैं ....
कुछ प्याली में
कुछ कुर्सी पर
और कुछ इधर उधर...

गीत तो हैं ...शायद मुस्कुराहटें भी
पर हवा अब अकेली है
अकेली ही रहेगी ...
शायद हमेशा के लिए !!!

Friday, October 9, 2009

मैं का टूटना... हम हो जाना..... दर्द है !!



मैं का टूटना
हम हो जाना
दर्द है
तपती सांकल की तरह
ना छुअन की संभावना
ना ही खुल जाने की आस

बंद होती हथेली पर
पूर्ण और अपूर्ण के दरम्यान
भीड़ सा हो जाने का अहसास
सर उठाता है ..
चुभता रहता है
तीखी किरचों की तरह
एकाकीपन आँख बंद करता है
( अंधों से परिचय भी हो तो कितना )

टूटना
बिखरना
परिभाषाएं खो देना
कब हुए पर्याय - जुड़ जाने के ?

कब हुआ करीब आना
दूर....
बहुत दूर हो जाना खुद से ?

रौशनी से ज्यादा नजदीकी - हमेशा अँधेरा ही क्यों होती है ?

प्रश्नों की दूब पर
ओस बन के कोई उत्तर
उतरे ना उतरे...
स्तिथि मात्र यही है ...
मैं का टूटना हम हो जाना
दर्द है
स्वीकारना होगा
दर्द की तरह !!!