"अगर.."
मैंने
छू के महसूसा है
उतना नहीं आसमान
जितना आँख से दिखता है
सीमायें
तन की होती है
कसमसाती हैं
तनती हैं तन में
मन मुक्त है
बेईजाज़त
बेलगाम
बेशर्म
वर्जनाएँ
कूड़ेदान से चिपके
बेमतलब इश्तेहार से ज़्यादा
और कुछ नहीं होती
निषेध मन के लिए नहीं होता
कुछ भी
स्वयं के अनुशीलन में बंधी देह
विक्षिप्त
केवल
अधूरे आसमान की संकल्पनाओं
में उलझी
कोरे शब्दों की
झूठी व्याख्या की
मोहताज हो सकती है
इससे इतर कुछ नहीँ
तन नश्वर है....
बच गया होता
सब कुछ
और मैं भी
अगर सिर्फ मन होता !!
मैंने
छू के महसूसा है
उतना नहीं आसमान
जितना आँख से दिखता है
सीमायें
तन की होती है
कसमसाती हैं
तनती हैं तन में
मन मुक्त है
बेईजाज़त
बेलगाम
बेशर्म
वर्जनाएँ
कूड़ेदान से चिपके
बेमतलब इश्तेहार से ज़्यादा
और कुछ नहीं होती
निषेध मन के लिए नहीं होता
कुछ भी
स्वयं के अनुशीलन में बंधी देह
विक्षिप्त
केवल
अधूरे आसमान की संकल्पनाओं
में उलझी
कोरे शब्दों की
झूठी व्याख्या की
मोहताज हो सकती है
इससे इतर कुछ नहीँ
तन नश्वर है....
बच गया होता
सब कुछ
और मैं भी
अगर सिर्फ मन होता !!