Wednesday, April 11, 2018

"अगर.."

 मैंने
छू के महसूसा है
उतना नहीं आसमान
जितना आँख से दिखता है

सीमायें
तन की होती है
कसमसाती हैं
तनती हैं तन में
मन मुक्त है
बेईजाज़त
बेलगाम
बेशर्म
वर्जनाएँ
कूड़ेदान से चिपके
बेमतलब इश्तेहार से ज़्यादा
और कुछ नहीं होती
निषेध मन के लिए नहीं होता
कुछ भी

स्वयं के अनुशीलन में बंधी देह
विक्षिप्त
केवल
अधूरे आसमान की संकल्पनाओं
में उलझी
कोरे शब्दों की
झूठी व्याख्या की
मोहताज हो सकती है
इससे इतर कुछ नहीँ

तन नश्वर है....

बच गया होता
सब कुछ
और मैं भी
अगर सिर्फ मन होता !!
"छिलके उतारो"

छिलके उतारो
इसके आलावा कोई और
चारा भी क्या है...
छिलको उतारो !

ज़ुबाँबन्दी से
साँसबन्दी तक के डर
कितनी दूर तक चलने देंगे
पराजय की एक स्तिथि
यह भी होती है...
सब किस्सों को तकिया बनाये
सो लिया जाये !
कोस लिया
नाराज़ हो लिए
विरोध कर, अपने अँधेरे में
छुप कर भी देख लिया
अब कुछ ना हो पायेगा
नकारात्मकता प्रश्न नहीं रह गई
निदान सी महसूस हो तो
क्या कर लोगे,
सिवाय इसके कि
छिलके उतारो !
ना,
कोई फल, कोई फूल
या सुगंध ...
मिलेगा कुछ नहीं
छिलके हैं
उतारते रहो
उतरते जायेंगे
बस तुम्हें काम में
लगाये रखने की साज़िश है
यह उम्मीद की रस्सी
जितना भी उलझ ले,
उलझा ले
गले तक नहीं पहुँच पाती !
मेरे वजूद पर
कुछ सवालिया निशान हैं
जिनके जवाब के लिए
अब ना कोई बाध्यता है
ना मजबूरी
और शायद ज़रुरत भी कहाँ है
किसे है
शब्द चुकने लगे
अर्थ अनर्थ हो जाएँ
हाँ, ना और अथवा तक
अपनी पहचान खो दें
और जीना सिर्फ जीने तक
सीमित होकर रह जाये
तब करने को यही बचता है
छिलके उतारो
छिलके उतारो !!


हवा में उड़ने वाले को,
ज़मी का बशर नही दिखता !
मकाँ की छत तो दिखती है
पर अपना घर नहीं दिखता !!






"बाकी सब ठीक है "

जो चाहा था
मिला
सब कुछ
मगर
जो मिला
सब कुछ
क्या चाहा था
यही सब कुछ

जीवन की शर्तें
'कन्डीशन अप्लाई'
के साथ होती है
नज़र नहीं आती
सीढ़ी की रेलिंग
छुए बिना भी
ऊपर
चढ़ते चले जाने का अहसास
नशा है
आह्लादित करता है
निश्चय ही
बहुत कुछ करता है
सिवाय इसके
कि पायदान
ऊपर की बजाय
नीचे फिसल रहें हैं
और ऊपर जाने की खबर
झूठ है
खुली नहीं
बन्द मुट्ठी भी खाक ही होती हैं
पर कमबख्त
झूठे मुहावरों के मुग़ालते में
समझ
धोखा खाती है
देती तो है ही !
ज़िन्दगी खाब है
यह पता होता
तो भी जागने की कोशिश
बदतमीज़ी है
नींद
हर बुरे खाब के बावजूद
खूबसूरत है
चार घण्टे की हो
या चार जन्मों की
चाहा यही था
बस एक
सवालिया निशान है
क्या चाहा यही था ?
बाकी सब ठीक है !!

Thursday, November 10, 2011

Sunday, February 14, 2010

" फिर दिखा वो आइना ...."




चंद कतरे ज़िंदगी की ओस के, होंठों पे रख
मैं खुश हुआ था,
फिर किसी उम्मीद के अहसास ने आकर के यूँ
मुझको छुआ था !

एक पल में उड़ चले थे , सोच के पर जाने कहाँ,
सच मेरी लाचार हालत का भी मुझको झूठ सा
लगने लगा था !

.......कि अचानक दिख गयी तस्वीर वो जो थी हकीकत,
फिर दिखा वो आइना किरचें समेटे ज्यों का त्यों
टूटा हुआ था !

अब वही सूखे से कतरे आँख में फिर तिर रहें हैं
भीगते तो अश्क बन कर बह भी जाते,
रूह के फैले अंधेरों में बेमकसद, फिर रहें हैं !

फिर वही मैं हूँ औ' मेरी बेबसी,
पर कब तलक !
आज की रात कटेगी तो सहर देखूँगा !!!!

Saturday, February 6, 2010

"मैं मगर हारा नहीं हूँ...."



थक गया हूँ मैं भले ही
मैं मगर हारा नहीं हूँ...
वक़्त हो कितना भी कातिल
वक़्त का मारा नहीं हूँ !!

दीप मेरा आँधियों में लड़खड़ाता ही सही
पर जल रहा है....
हौसला बोझिल हुआ सा डगमगाता ही सही
पर चल रहा है !

रौशनी की लकीरें कुछ दिखें या न सही ,
घबरा के दम को घोंट लूं , मैं वो अँधियारा नहीं हूँ
थक गया हूँ मैं भले ही, मैं मगर हारा नहीं हूँ !!

नाव मेरी इस भंवर में फस चुकी हो भले
डूबी नहीं है...
डाली डाली बागबाँ की छितरी पड़ी हो भले
सूखी नहीं है !

ज्वार ऊँचा हो भले आकाश से, होता रहे
इस प्रलय में डूब जाऊं, सागर का वो किनारा नहीं हूँ ...
थक गया हूँ मैं भले ही, मैं मगर हारा नहीं हूँ !!